नमस्कार, मेरे प्यारे भारतवासियों,
मैं मोहनदास करमचंद गांधी – हां वही जिसे आपने कभी बापू कभी महात्मा और कभी राष्ट्रपिता कहा
आज मैं आपको कोई भाषण देने नहीं आया हूं।
मैं आया हूं अपना मन खोलने, अपनी बात कहने, और आपके मन में मेरे बारे में जो सवाल हैं – उन सवालों के जवाब देने।
तुमने पढ़ा होगा कि भारत 1947 में आज़ाद हो गया। अंग्रेज़ चले गए, झंडा बदल गया, सत्ता बदल गई। पर मैं पूछना चाहता हूं – क्या तुम सच में आज़ाद हो? क्या तुम अपने भीतर से आज़ाद हो? क्या तुम अपने डर, अपनी नफरत, अपनी गुलामी की आदत से मुक्त हो? अगर नहीं, तो आज़ादी अधूरी है।
मैं कहता रहा हूं – स्वराज मतलब सिर्फ सरकार का बदलाव नहीं, ये आत्मा की आज़ादी है।
जब हर इंसान खुद पर शासन कर सके, अपने सही-गलत का निर्णय खुद कर सके, अपने लालच और ग़ुस्से पर काबू पा सके, तभी असली आज़ादी होगी।
मैंने अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी – पर तलवार से नहीं, बंदूक से नहीं, नफरत से नहीं। मैंने लड़ाई लड़ी सच्चाई से, प्रेम से, और बिना हिंसा के। कुछ लोग कहते हैं – अहिंसा से क्या होता है? जवाब है – अहिंसा से ही मन बदलता है। तलवार शरीर को हरा सकती है, पर आत्मा को नहीं। मैंने अंग्रेजों की सत्ता को हिला दिया, बिना खून बहाए।
लोग पूछते हैं – गांधी, तुमने खादी पहनने को इतना जरूरी क्यों बना दिया? मैं कहता हूं – खादी सिर्फ कपड़ा नहीं था, वो आत्मनिर्भरता की चुप क्रांति थी। जब तुम विदेशी कपड़े पहनते हो, तो अपने ही देश के कारीगर की रोज़ी छीनते हो। मैंने चरखा चलाया क्योंकि मैं चाहता था कि भारत का हर गरीब खुद के लिए कुछ कर सके। चरखा मेरे लिए सिर्फ सूत नहीं था, वो आत्मबल का चक्र था।
कई बार लोग कहते हैं – गांधी ने भगत सिंह को नहीं बचाया। सच बताऊं? मैंने पूरी कोशिश की थी। मैंने वायसराय को पत्र लिखे, अपील की। पर मैं हिंसा का समर्थन नहीं कर सकता था, भले ही मकसद देशभक्ति क्यों न हो। भगत सिंह का बलिदान महान था – मैं इसे कभी छोटा नहीं कहूंगा। पर मेरी राह अलग थी – मेरी लड़ाई आत्मा को जीतने की थी, सत्ता को नहीं सिर्फ हराने की नहीं, बल्कि बदलने की।
कुछ लोग कहते हैं – गांधी अंग्रेजों के दोस्त थे। ये बात मुझे दुख देती है। अगर मैं उनका दोस्त होता, तो जेलें क्यों झेलता? कस्तूरबा मेरे साथ जेल में मरीं। मैंने अपने ऊपर चलती लाठियां सहीं, उपवास किए, जान दांव पर लगाई – क्या कोई दोस्त ऐसा करता है? मैं अंग्रेजों के अन्याय के खिलाफ था, लेकिन उनके मन के अंदर के मनुष्य से घृणा नहीं करता था। मैं उनसे नफरत नहीं करता था, मैं उनके अन्याय से लड़ता था। यही मेरा धर्म था।
एक और आरोप लगता है – गांधी आधुनिकता के खिलाफ थे। नहीं, मैं तकनीक का विरोधी नहीं था, मैं उसकी अंधभक्ति का विरोधी था। मैंने कहा – मशीनें इंसान की मदद के लिए होनी चाहिए, इंसान मशीन का गुलाम न बन जाए। अगर विज्ञान हमें बेहतर डॉक्टर, साफ पानी, बेहतर शिक्षा दे सकता है – तो मैं उसका समर्थन करूंगा। लेकिन अगर वही विज्ञान गांवों को उजाड़कर शहरों में भीड़ और प्रदूषण बढ़ाए, तो मैं सवाल करूंगा।
कई नौजवान मुझसे पूछते – गांधीजी, आप इतने बड़े नेता होकर भी राजनीति में क्यों नहीं आए? मैं मुस्कुराकर कहता हु – बेटा, मैं नेता नहीं, सेवक बनकर जीना चाहता था। सत्ता का मोह मेरे अंदर कभी नहीं आया। अगर मेरे शब्द किसी गरीब को हिम्मत दे सकें, किसी गलत को रोक सकें, किसी बालक को चरित्र दे सकें – तो वही मेरा सिंहासन है।
एक सवाल और बार-बार आता है – आप हमेशा हिंदू-मुस्लिम एकता की बात करते रहे, पर क्या उससे विभाजन रुका? सच कहूं – मेरा दिल टूटा था जब भारत बंटा। मैंने कहा था – "मुझे भारत की एकता चाहिए, चाहे उसकी कीमत मेरी जान क्यों न हो।" जब सब नेता आज़ादी का जश्न मना रहे थे, मैं नोआखाली के गांवों में हिंसा रोकने के लिए अकेला घूम रहा था। अगर मेरी एक बात किसी को मारने से रोक सके – तो वही मेरी जीत थी।
मैंने सत्ता से नहीं, समाज से बात की। मैंने बड़े-बड़े मंचों से नहीं, गलियों और चरखों से संवाद किया। आज अगर मैं जिंदा होता, तो वही कहता – धर्म को राजनीति से मत जोड़ो, वोट को जाति से मत तौलो, विकास को गांव से शुरू करो, और सच्चाई से कभी समझौता मत करो।
तुम वकील बनोगे, न्यायाधीश बनोगे, नेता बनोगे – लेकिन उससे पहले इंसान बनो। सच बोलो – भले अकेले रह जाओ। हिंसा से मत डरना – पर उसका जवाब भी हिंसा से मत देना। समाज को बदलना है तो खुद से शुरू करो। जो बदलाव तुम दूसरों में चाहते हो, वो खुद में लाओ। यही मेरा मंत्र था, यही आज भी है।
मैं गांधी हूं – एक अधूरा इंसान, पर एक सच्चा साधक। मेरी राह कठिन थी, लेकिन मेरी नीयत साफ थी। अगर तुम मेरी बातों को अपने जीवन में उतार सको, तो समझो कि मैं अब भी जीवित हूं।
जय हिंद।

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