जब हम जैसे है वैसे ही बने रहना चाहते है तब हम धर्म को भी अपने हिसाब से बदलने लगते है।
और यह धर्म बदलते बदलते इतना विकृत हो जाता है कि अपनी मूल सच्चाई और आध्यात्मिक शक्ति को खो बैठता है, और कहीं कहीं यह सच्चे धर्म के बिल्कुल विपरीत हो जाता है
यही विकृत धर्म “लोकधर्म” कहलाता है जिसको हम अपना धर्म कहते हैं जो हमे बाह्य आडंबरों, सामाजिक रूढ़ियों और खोखली परंपराओं के द्वारा सिखाया जाता है।
लोकधर्म समाज में जाति-भेद, कर्मकांड, बाह्य आडंबर और परंपरागत रीतियों में देखा जाता है।
यह धर्म नहीं, धर्म का मुखौटा है — जिसमें धर्म के नाम पर भेदभाव, हिंसा, पाखंड और संकीर्णता को पोषित किया जाता है।
ऐसे तथाकथित धार्मिक वातावरण में मनुष्य धर्म से नहीं, बल्कि उसके नाम पर बनी परछाइयों से जुड़ता है। यही कारण है कि समाज में धर्म के नाम पर लड़ाइयां और भेदभाव बढ़ता जाता है।
सच्चा धर्म सनातन है।
"सनातन" का अर्थ है — जो सदा से था और सदा रहेगा , जो सर्वकालिक, सार्वभौमिक और शुद्ध है। सच्चा धर्म मनुष्य को उसके विकारों से मुक्त करता है, आत्मा को शुद्ध करता है और उसे एकमात्र ईश्वर से प्रेमपूर्वक जोड़ता है। यह धर्म न जाति देखता है, न संप्रदाय यह केवल आत्मा की उन्नति का पथ है।
सच्चा धर्म हमें गीता, उपनिषदों और संतों की वाणी में प्राप्त होता है — जैसे भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने जो उपदेश दिए हैं, वे इस सनातन धर्म के सार हैं।
आइए देखे गीता जी में भगवान ने हमारे लिए क्या बताया है।
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः। आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।
अर्थ - "हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! इन्द्रियों के विषयों के संपर्क से उत्पन्न सुख और दुःख, सर्दी और गर्मी की तरह आने-जाने वाले हैं और अस्थायी हैं। हे भरतवंशी! इन्हें सहन करना सीखो।"
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥
अर्थ - "सुख और दुःख, लाभ और हानि, तथा जय और पराजय को समान समझकर फिर युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। ऐसा करने से तुम पाप को प्राप्त नहीं करोगे।"
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥
अर्थ - "हे पुरुषों में श्रेष्ठ! जो मनुष्य सुख और दुःख में समभाव रहता है, जिन्हें ये विचलित नहीं करते, वह धैर्यवान व्यक्ति अमरत्व (मोक्ष) के योग्य होता है।"
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥
अर्थ - "हे भारत! तू सर्वभाव से उसी परमेश्वर की शरण में जा। उसकी कृपा से तू परम शान्ति और शाश्वत स्थान (मोक्ष) को प्राप्त करेगा।"। 18.62
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥
अर्थ - "मुझे मन से स्मरण कर, मेरा भक्त बन, मेरी पूजा कर और मुझे प्रणाम कर। इस प्रकार तू निश्चित ही मुझको प्राप्त होगा। यह मैं तुझसे सत्य वचन कहता हूँ, क्योंकि तू मुझे प्रिय है।"18.65
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥
अर्थ - "सभी धर्मों को त्याग कर केवल मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त करूँगा, इसलिए तू न डर।"
18.66
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
अर्थ - "तुम्हारा केवल कर्म करने में अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए कर्मों के फल का कारण मत बनो और न ही अकर्मण्यता में आसक्त रहो।"2.47
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥
अर्थ - "कोई भी व्यक्ति क्षणभर भी अकर्म (कर्म न करने वाला) नहीं रहता। सभी कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों के प्रभाव से अनायास ही होते रहते हैं।"3.5
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते..."
मन बड़ा चंचल है मथ डालने वाले स्वभाव वाला है हठी और बलवान है इसे वश में करना अति दुष्कर है ।
पर अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इसे वश में किया जा सकता है ।
अभ्यास अर्थात मन जहां कहीं भी जाए वहां से हटाकर ईश्वर में लगाना ।
जो मन को वश में कर लेता है वह योग को प्राप्त होता है योग अर्थात मेरे स्वरूप में स्थित हो जाता है ।
जो योगी प्रेमपूर्वक निरंतर मुझे स्मरण करता है वह मुझे अत्यंत प्रिय है।
जो न किसी से द्वेष करता है, न किसी की आकांक्षा करता है वह सदैव सन्यासी ही समझे जाने योग्य है यही वैराग्य है।
सच्चा धर्म वही है जो हमारे मन, वाणी और कर्म को निर्मल बनाए।
जो धर्म आत्मा को ईश्वर से जोड़े, लोभ और भय से मुक्त करे, वही सनातन धर्म है।
हमें चाहिए कि हम आडंबर और रूढ़ियों से ऊपर उठें, और आत्मज्ञान के प्रकाश में धर्म को भीतर से जिएं।
> 🌸 "सच्चे धर्म का प्रचार करें, पर साथ ही झूठे और विकृत धर्म का साहसपूर्वक विरोध भी करें। यही एक सच्चे साधक, सुधारक और संन्यासी का मार्ग है।" 🌸
🙏 जय श्रीराम | सत्यमेव जयते | वसुधैव कुटुम्बकम् 🙏

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